Wednesday 21 December 2011

sanjh ki barish

बहुत पहले लिखी कविता  याद आ रही है, साँझ की बारिश
शाम का धुंधलका
इसे में घिरे बादल
और बरसता मेघ
लरजती चम्पाकली
कचनार , कुसुम
बोग्न्वोलिया डाली डाली
झरती बूंदें
भीगे पर्ण व् pnkhdiyan 
कितना अच्छा लगता है
लाल लाल गुलमोहर
चिड़ियों की चहचाहट
कंही सुदूर पश्चिम की
लालिमा
आंगन में घिरती
घनी कलि चादर
और कमरों में रोशन होते ट्यूब
इन सबके साथ ही तो
आता  है , बरसती साँझ में
मीठी यादों का रेला
जब जीवन नही था
इतना अकेला
घर होता जाता है
ज्यों ज्यों , साँझ का अँधेरा
जोगेश्वरी सधीर की एक पुरानी कविता